Sunday, June 14, 2020

UP: शिक्षक भर्ती में पेपरआउट का मास्टरमाइंड

इस आदमी का नाम है डॉक्टर कृष्ण लाल पटेल. यूपी के 69000 शिक्षक भर्ती में पेपरआउट का मास्टरमाइंड है ये. मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले में भी इसका नाम आया था. और 45 जेल में भी रहा था.
अब इसकी कुंडली जान लीजिए

मेरे घर से करीब 15-20 किलोमीटर की दूरी पर इसका घर बहरिया के कपसा गांव में है. वहां ये अपना एक डिग्री कॉलेज भी चलाता है.
जबकि मेरे घर से महज 1 किलोमीटर की दूरी पर इसकी ससुराल है. इसकी सास सुधा पटेल फूलपुर में पाठक नर्सिग होम में नर्स का काम सीखी और बाबूगंज मेनरोड स्थित अपने आवास पर नर्सिंग होम खोल ली. नर्स तक की डिग्री नहीं है इसके पास और एबॉर्शन से लेकर डिलिवरी तक का सारा काम खुद करती है. पुलिस चौकी और थाना इसके नर्सिंग होम से 3-5 किलोमीटर की दूरी पर है. लेकिन नर्सिंग होम में क्या कैसे होते है ये पुलिस को छोड़कर बाकी सबको पता है.
वापिस डॉ के एल पटेल पर आते हैं. उत्तरप्रदेश में ऐसी कोई विभाग ऐसी कोई वैकेंसी नहीं जिसमें इस शख्स ने कुछ लोगो को नौकरी न दिलवाई हो. इलाहाबाद में डॉ के. एल. पटेल सरकारी नौकरी की चाह रखने वालों के बीच में एक विश्वसनीय नाम बन गया कि पैसे लेकर काम करवा देता है. दो साल पहले ही इसने मेरे ही गांव के कई लड़कों को, वी. डी. ओ. और लेखपाल के पदों पर भर्ती करवाया है.

राज्य में जब भी कोई भर्ती निकलती डॉ के. एल. पटेल के घर पर फैले लेकर आने वालों की संख्या बढ़ जाती. ये बात सबको पता है. पुलिस या भ्रष्टाचार निरोधी विभाग को छोड़कर. तो पिछले 10-12 वर्षों में के एल पटेल ने बहुत लोगो को नौकरी दिलवाई और बहुत पैसे बटोरे.
लेकिन डॉ के एल पटेल इतने से संतुष्ट होने वाला व्यक्ति नहीं था. वो बेहद महत्वाकांक्षी है. तो धीरे धीरे तमाम भ्रष्टाचारियों की तरह पोलिटिक्स में कदम बढ़ाने लगा. जिला पंचायती लड़ा जीता भी. फिर इसने अपना अगला गोल विधायक के लिए सेट किया. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 से करीब एक साल पहले से ही ये अपने आप को अपनी विधसभा क्षेत्र प्रतापपुर के प्रत्याशी के रूप में प्रचारित करने लगा. हिंदुस्तान, दैनिक जागरण और अमर उजाला में इसके तारीफों के गुणगान छपने लगे. इसने बतौर प्रत्याशी अपना दल की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल का अपने क्षेत्र में एक बड़ा कार्यक्रम भी किया.
लेकिन 2017 उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा सहयोगी अपना दल ने प्रतापपुर सीट से करण सिंह को टिकट दे दिया.
अब चूंकि के. एल. पटेल चुनाव के साल भर पहले से तैयारी कर रहा था और खुद को अपना दल का निश्चित प्रत्याशी मानते हुए इसने प्रचार में लाखों रुपये भी फूंका था तो ऐसे कैसे जाने देता.
अतः के. एल. पटेल प्रतापपुर विधानसभा सीट से निर्दलीय ही चुनाव लड़ गया.


https://www.facebook.com/susheel.manav5891/posts/3034286766649151

इस विधानसभा सीट से बसपा के मुजतबा सिद्दीकी ने अपना दल के करन सिंह को करीब 2600 वोटों से हराया।
डॉ के. एल. पटेल चुनाव में निर्दलीय न उतरता तो अपना दल प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित थी. इसके बाद ही डॉ के एल पटेल सत्ता के निशाने पर आ गया. चुनाव परिणाम आने के बाद इसके खिलाफ़ काम में लापरवाही बरतने और नौकरी से गैरहाजिर रहने की जांच भी बिठाया गया था .
टीईटी व रेलवे परीक्षा के दौरान जेल भेजे गए सॉल्वर गिरोह के सदस्यों से भी पूदताछ की तैयारी में है। बता दें कि इसी साल जनवरी में एसटीएफ ने सिविल लाइंस में टीईटी परीक्षा के दौरान पेपर लीक कराने में जुटे स्कूल प्रबंधक चंद्रमा यादव समेत अन्य को जेल भेजा था। पूछताछ के दौरान 69 हजार शिक्षक भर्ती में गिरफ्तार केएल पटेल भी चंद्रमा से परिचित होने की बात कबूल चुका है।

Thursday, August 1, 2013

शैलेन्द्र चौहान 

'साहित्यिक जीवन में सबसे बड़ा पछतावा अज्ञेय को लेकर होता है। मेरे एक विध्वंसकारी लेख ने उन्हें इस कदर नाराज कर दिया कि वे लगभग सत्रह बरस नाराज रहे और उन्होंने मेरे सबसे सक्रिय सांस्कृतिक जीवन के साथ बहुत दुखद असहयोग किया। मैं भी अपनी जिद पर अड़ा रहा कि मैंने स्वतंत्रता का पाठ उन्हीं की पाठशाला में सीखा था तो मैं इस मामले में क्यों झुकूं। मेरा स्वाभिमान, जिसे कई मित्र अहंकार भी कहते रहे हैं, आड़े आया। उनकी जन्मशती चल रही है। अपने अंतिम दिनों में वे अपना हठ छोड़ कर भारत भवन के दो आयोजनों में शामिल हुए थे। मुझे पछतावा है कि उससे बहुत पहले मुझे कुछ अधिक सशक्त पहल कर उन्हें मना लेना चाहिए था। मध्यप्रदेश में संस्कृति की एक जबर्दस्त पहल को अज्ञेय का समर्थन यथासमय नहीं मिल सका, यह मुझे उसकी एक बड़ी कमी और कमजोरी लगती है।'
यह बहुत अवसरानुकूल और  लाभानुकूल स्वीकारोक्ति है अशोक जी की। अशोक जी जो सदैव कांग्रसी सत्ता के अंध समर्थक रहे हैं उन्होंने 'हंस' के वार्षिक प्रेमचंद जयंती समारोह में 'अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध' विषयक विमर्श  में यह स्वीकारोकी भी कर ली कि 'राजनीतिक दलों के हुड़दंगी दस्तों और धौंस देने वाले समुदायों का जिक्र करते हुए यह कहा कि ये लोग लोकतंत्र की मर्यादाओं को सिकोड़ने में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं। उन्होंने कहा कि आहत भावनाओं का जो परिसर बन गया है, उसे मीडिया का भी समर्थन है और राज्य अगर कभी प्रतिबंध लगाता भी है तो इन्हीं हुड़दंगियों के कारण मजबूर हुआ है।' बहत्तर वर्ष की उम्र में उनकी यह हुड़दंगी दस्तों और राजनीति  पर टिपण्णी न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि एक संशय पैदा कराती है कि अब उनका इरादा क्या है ? कोई तीन वर्ष पहले अशोक वाजपेयी जम्मू गये थे अज्ञेय के ऊपर एक कार्यक्रम में, वहां कुछ लेखकों ने उनसे प्रश्न पूछा कि इतने किसान जो आत्महत्या कर रहे हैं उसके बारे में आप क्या कहेंगे? तो अशोक जी बात को यह कहकर टाल गए 'ये सब राजनीतिक समस्याएं हैं मुझे इनके बारे में कोई जानकारी नहीं है।' वही अशोक जी आज राजनीतिक दलों के हुड़दंगियों की बात करें तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। दूसरी ओर विमर्श-प्रभु राजेंद्र यादव की 'अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध'  को लेकर नीयत भी समझने में मुझे तो कम से कम कठिनाई का अनुभव हो रहा है कि आखिर यह विमर्श किस के लाभ के लिए किया गया है। राजेंद्र जी यूं तो घोषित रूप से वामपंथी हैं लेकिन जहां तक मैं समझता हूँ कि सदैव उनहोंने वामपंथ की जड़ों में मट्ठा डालने में ही संतोष का अनुभव किया है। यह तो सर्वविदित है कि हंस के  माध्यम से विगत अढाई दशक तक तक उन्होंने जो विमर्श चलाये वे किसके पक्ष में गए हैं यह जानना जरूरी है। स्त्री देह विमर्श उपभोक्तावाद और पूँजीवाद का अभिन्न अंग है। अधिकांश उपभोग वस्तुओं के विज्ञापन  नारी देह के माध्यम से ही उपभोक्ताओं के बीच प्रस्तुत किये जाते हैं। इस कर्म से किसको लाभ होता है? जाहिर है मुनाफाखोर व्यवसायी-पूंजीपतियों को। भारतीय सिनेमा में महिला चरित्रों की देह उघा कर किसको फायदा हो रहा है ? सिने निर्माताओं को। स्त्री देह की नुमाइश करने वाली सुंदरी प्रतियोगिताएं कौन करा रहे हैं और क्यों ? बड़े-बड़े मल्टीनेशनल पूंजीपति और उनकी पोषित संस्थाएं। यह किसके लाभ के लिए ? इसका एक बड़ा दुष्प्रभाव यह, भारतीय समाज की पैसे के लिए अत्यधिक ललक बढ़ी है वहीँ आपराधिक मानसिकता भी। दूसरा है दलित विमर्श। इस विमर्श से दलितों के जीवनस्तर और मानसिक-वैचारिक स्तर में क्या उन्नति हुई है, इसका आकलन विश्लेषण करना  भी आवश्यक है। दलितों को लेकर जो साहित्य, राजेंद्र यादव देते रहे हैं  वह महज एक सद्भावना का रूप है। इसमे सामजिक विद्रूपताओं का तो चित्रण लेकिन भारतीय जातिवादी मानसिकता के समूल उन्मूलन की बात कभी नहीं की गयी जो इस भेदभाव के मूल में है। वहीँ राजनीतिक दलों के जातिवादी रवैये को लेकर उनकी प्रभावी टिप्पणियां कभी दिखाई नहीं देतीं, क्यों? यह सायास चुप्पी किसके पक्ष में रही ? राजेंद्र जी मुलायम सिंह और लालू के समर्थक रहे, मायावती के भी पर उन्हें कभी नसीहत नहीं दी कि वैचारिक जागृति और मानसिक उन्नति ही किसी आन्दोलन की सशक्त पृष्ठभूमि होती है। ये राजनेता क्या करते है यह सबको पता है। सो राजेंद्र जी कुल मिलाकर परोक्ष रूप से पूंजीवाद की सेवा करते रहे हैं। हाँ एक बात और, 'हंस' पूरी तरह से एक ही व्यक्ति, राजेंद्र यादव के स्वामित्व में निकलती है और संपादक भी वही हैं। उसमे वही छपता है जो वो चाहते हैं। इस कार्य से उन्ही को प्रतिष्ठा मिली है। यह नितांत व्यक्तिवादी उपक्रम है जो एक व्यक्ति के लाभ हेतु किया जाता रहा है। इससे गरीब और दमित जनता के आन्दोलनों और उनके मानसिक-बौद्धिक विकास को उन्नत करने में कितना बल मिला है यह शोध का विषय हो सकता है पर यह तय है कि इस उपक्रम की कोई व्यवस्था-विरोधी क्रन्तिकारी-सामाजिक भूमिका कभी नहीं रही।

दिल्ली 
१ अगस्त २०१३